Tuesday, November 2, 2010

संकट के सूत्र : षडयंत्रों से समाधान तक

इसमें कोई ‘शक नहीं है कि आज दुनिया गहरे संकट से गुजर रही है. परिवार, समाज, राष्ट्र आपस में उलझे हैं. हर कोई एक दूसरे को दबाने की अन्तहीन होड़ में है. और इसका खामियाज़ा मानवता को उठाना पड़ रहा है. हर आदमी सहमा है, हर परिवार डरा हुआ है, समाज और राष्ट्र अभूतपूर्व स्तर पर अशांत हैं.

कुछ लोगों का दावा है कि दुनिया भर में हो रही अमानवीय गतिविधियां विश्व के चुनिन्दा उद्योग घरानों की सोची समझी साजिश हैं. इन साजिशों का खुलासा निकोला एम. निकोलोव नामक लेखक ने "द वर्ल्ड कांसप्रेसीज़" नामक अपनी पुस्तक में किया है. भारत में आज़ादी बचाओ आन्दोलन ने इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद "विश्व जागतिक शड़यन्त्र" के नाम से प्रकाशित किया है.

इस पुस्तक में विभिन्न तथ्यों और घटनाक्रमों को सबूत के रूप में प्रस्तुत करते हुए बताया गया गया है कि किस तरह सारी दुनिया दो पूंजीपति घरानों के इशारों पर नाच रही है. पिछले दो सौ साल में जितने युद्ध हुए, क्रान्तियां हुईं, यहां तक कि अकाल और गरीबी का खेल भी इन्हीं घरानों द्वारा मुनाफा कमाने के चक्कर में खेला जाता है. ये दो बड़े पूंजीपति घराने, जिनके मुखिया रॉथशील्ड और रॉकफेलर परिवार हैं, अपनी पूंजी और उद्योगों के अपने साम्राज्य के द्वारा सारे संसार पर शासन कर रहे हैं. दुनिया भर के राजा राष्ट्रपति और शासक इनके नौकरों की तरह अपना काम करते हैं.

पिछले दो सौ साल में इन दो घरानों ने मुनाफा कमाने के लिए दुनिया में जो खेल रचे है उनमें एक तरफ तो युद्ध, क्रान्तियां, तख्तापलट और हत्याएं, बीमारियां हैं तो दूसरी तरफ धर्म-शान्ति स्थापना, शिक्षा, वैज्ञानिक ‘शोधों आदि में भी ये पैसा लगाते हैं और इन सबसे मुनाफा कमाते हैं

पुस्तक खुलासा करती है कि किस तरह ढाई सौ साल पहले में जर्मनी में पैदा हुए राथशील्ड ने बैंकिंग कारोबार को अपने शड़यन्त्र के सहारे आगे बढ़ाया, दुनिया के देशों में पहले से काम कर रहे बैंकों को या तो खरीदा या उनका दीवाला निकाल दिया, और फिर दुनिया के तमाम देशों की सरकारों को भारी भरकम कर्ज के बोझ से लाद दिया. आज इस परिवार से जुड़े बैंक अपने कर्जदार देशों के नेताओं को अपनी उंगलियों पर नचा रहे हैं.

रॉथशील्ड कंपनी ने आज तक किसी सामान का व्यापार नहीं किया. वह केवल मुद्रा का कारोबार करती है और कोई ऐसा देश नहीं जो विदेशी कर्ज के नाम पर इन बैंकों के कर्ज से न दबा हो. खुद अमेरिका पर इस समय तीन ट्रिलियन डॉलर का ऋण है जो उसके बजट का सातवां हिस्सा है. इतनी बड़ी राशि ने अमेरिका को हमेशा हमेशा के लिए राथफील्ड घराने द्वारा संचालित बैंकों का गुलाम बना दिया है. आज अमेरिका की जो भी नीतियां, युद्ध हम देखते हैं वे इसी के चलते हैं. लिंकन, गारफील्ड, मैकिन्ले, और हाडिंग की हत्याएं इसीलिए कराई गईं क्योंकि इन्होंने अमेरिकी जनता के हितों की बात की थी जिससे रॉथफील्ड कंपनी को नुकसान पहुचने वाला था.

हाल ही में दुनिया ने ऐसी आर्थिक मन्दी देखी है जिसमें कई देश चरमरा गए. बताते हैं कि इसके पहले 1930 में ऐसी बेरोज़गारी आई थी. तब हुआ यही था कि रॉथशील्ड के बैंकों ने अपना सब धन रोक लिया था. इससे व्यापार रुक गया. लोगों के पास पैसा नहीं था इसीलिए कारखाने बन्द हो गए. बैंकों ने हज़ारों कारखाने, और खेत अपने कब्ज़े में ले लिए. लोग अपनी संपत्ति और बचत से हाथ धो बैठे. दिलचस्प बात ये है कि इसी समय ये बैंक दूसरे विश्व युद्ध के लिए लगातार धन उपलब्ध करा रहे थे.

लेखक का दावा है कि आजकल रॉथशील्ड परिवार के 300 बैंकों का जाल सारी दुनिया में अलग अलग नाम से फैला है. ये बैंक ही विश्व की नीतियों और युद्धों में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक जैसी संस्थाएं इनके मोहरे हैं. और इस शड़यन्त्र को समझे बिना दुनिया की समस्याओं के हल के लिए किए जा रहे प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे.
इसी कड़ी में एक और महत्वपूर्ण खुलासा "इकॉनॉमिक हिट मैन" नाम की किताब में किया गया है. इस किताब के लेखक जॉन पार्किंस का दावा है कि दुनिया की लगभग तमाम सरकारें मात्र कुछ अन्तराष्ट्रीय कंपनियों के हिसाब से काम कर रही हैं.  अन्तराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली लगभग हर छोटी बड़ी घटना के पीछे एक सोची साज़िश होती है. ये साज़िश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा रची जाती हैं. कभी इन्हें अमेरिकी सरकार अन्जाम देती है तो कभी वर्ल्ड बैंक और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं.  जॉन पार्किंस का दावा है कि वह खुद जाने अनजाने इन शड़यन्त्रकारियों में शामिल कर लिया गया. कई बार उसकी आत्मा ने उसे कचोटा लेकिन भारी वेतन और सुविधाओं के दवाब में वह दबता रहा. परन्तु अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों और उनसे हुई मौतों ने उसकी आत्मा हिला दी. अत: उसने अपने ही द्वारा कई देशों में रचे गए शड़यन्त्रों के साक्ष्य देते हुए इस पूरी साजिश का पर्दाफाश किया है.

यह किताब बताती है है कि अमेरिका में सी.आई.ए. की ही तरह एक और एजेंसी है जिसका नाम है इकॉनॉमिक हिट मैन (ई.एच.एम). इस एजेंसी का काम है दुनिया भर के संसाधनों और बाज़ार को अमेरिकी कंपनियों के कब्ज़े में लाना. इस एजेंसी से जुड़े लोगों को भारी भरकम वेतन देकर आर्धिक सलाहकारों और विशेशज्ञों के रूप में अन्य देशों की सरकारों के साथ काम करने को भेजा जाता है. ये लोग फर्जी आंकड़ों के आधार पर सरकार से ऐसी नीतियां बनवाते हैं जिससे कि वे विदेशी बैंकों से कर्ज लेने और पैसे से अमेरिकी कंपनियों से काम कराने पर  मजबूर हों. आम तौर पर ये तथाकथित विशेशज्ञ साज़िशन रचे गए आंकड़ों,  अमेरिकी दबाव और रिश्वत, सेक्स आदि के दम पर नेताओं और अफसरों से अपनी बात मनवा लेते हैं. लेकिन जहां ये नाकाम होते हैं वहां फिर यह काम सी.आई.ए को दिया जाता है. सी.आई.ए. उस देश में अशान्ति और हिंसा की साज़िर रचता है और ज़रूरत पड़ने पर इमानदार नेताओं की हत्या भी करवा देता है. लेकिन कभी कभी जब किसी देश में सी.आई.ए. भी नाकाम हो जाता है तो अमेरिकी सेना को उस देश की कमान युद्ध के रूप में सौंपी जाती है. जॉन पार्किंस के मुताबिक ईराक और वियतनाम दो ऐसे उदाहरण हैं जहां सी.आई.ए. भी नाकाम रही है. अत: इन देशों को युद्ध का सामना करना पड़ा.
ई.एच.एम. एजेंट के रूप में काम करते हुए जॉन पार्किंस ने कई जगह सफलता हासिल की. इसमें सबसे पहले उसे इण्डोनेशिया भेजा गया. अमेरिकी कंपनियां यहां के तेल कारखानों पर कब्ज़ा करना चाहती थीं. पार्किंस को मेन नामक कंपनी का अर्थशास्त्री बना कर भेजा गया. हालांकि पार्किंस को अर्थशास्त्र का कोई ज्ञान ही नहीं था. पार्किंस से ज़बरदस्ती ऐसी रिपोर्ट्स बनवाई गईं जिनके आधार पर इण्डोनेशिया को वल्र्ड् बैंक से भारी भरकम कर्ज लेना पड़ा और अन्तत: कर्ज तले इण्डोनेशिया की सरकारों ने अपने द्वरवाज़े अमेरिकी कंपनियों की मनमानी के लिए खोल दिए.
इसी तरह उसने ईरान में शाह का तख्ता पलट करवाया, सऊदी अरब में तेल के कारोबार का सारा लेन देन अमेरिकी बैंकों को दिलवाया. इन सफलताओं के लिए उसने पैसा, औरत सहित हर तरह के झूंठ और शड़यन्त्र का सहारा लिया. पार्किंस के मुताबिक उसे पनामा में सफलता नहीं मिली तो उसे वापस बुलाकर सी. आई.ए. को कमान सौंपी गई. सी.आई.ए. ने एक महीने में ही राष्ट्रपति उमर तोरिजोस की हत्या हवाई दुर्घटना में करवा दी.
पार्किंस के मुताबिक दुनिया भर में ये खेल खेला जा रहा है. और इसकी परिणति अतत: पर्यावरण संकट, अशान्ति और युद्ध के रूप में ही देखने को मिलेगी.
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ऊपर लिखी किताबों की ही तरह और भी कई किताबें हैं, गाहे बगाहे चर्चा सुनने को मिलती रहती है कि इस दुनिया कि किसके इशारे पर चलाया जा रहा है. किस घटना के पीछे किसकी साज़िश है. ये बातें सच भी हो सकती हैं. ऐसा भी हो सकता है कि इसमें सच कम हो और अफवाह या लोगों में डर फैला कर रोमांचित होने वाले लोगों का हाथ ज्यादा हो क्योंकि जिस तरह के दावे इन बातों में किए जाते हैं उनका अन्दर तक सत्यापन करने की क्षमता किसी में नहीं है.
फिर भी भारत में भी आजकल जिस तरह विकास के नाम पर हमारी सरकारें विदेशी और प्रमुखत: अमेरिकी कंपनियों की पिट्ठू बनी हुई हैं उससे इसका भास तो मिलता है कि कहीं न कहीं कुछ पकाया जाता तो है. वर्ना ऐसा भी क्या कि चन्द लोगों के लिए सुविधाएं जुटाने के काम को विकास का नाम दिया जा और फिर इसके लिए देश के किसानों और आदिवासियों को बेघर कर दिया जा, मार डाला जाय. विकास के इस पहलू पर भी कई तर्क वितर्क किए जा सकते हैं.
लेकिन कुछ साल पहले दिल्ली में सूचना के अधिकार कानून के इस्तेमाल से दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण के कुछ दस्तावेज़ निकाले गए. करीब 14000 पृष्ठों के इन दस्तावेज़ों में जगह जगह यह सवाल  उठता है कि हमारी सरकरों में बैठे अफसर और नेता क्या विश्व बैंक के क्लर्क की तरह काम कर रहे हैं. घटनाक्रम इस प्रकार है कि दिल्ली जल बोर्ड की स्थिति ठीक करने के लिए विश्व बैंक ने दिल्ली सरकार को 700 करोड रुपए का कर्जा मंजूर किया लेकिन इसके पहले उसने 10 करोड़ का कर्जा यह तय करने के लिए दिया कि इस 700 करोड़ से क्या करना है. दुनिया की 35 कंपनियों ने सलाहकार के लिए आवेदन किया लेकिन विश्व बैंक ने बाकायदा दिल्ली सरकार की उंगली पकड़कर यह काम प्राईस वाटरकूपर हाउस लिमिटेड को दिलवाया. यह कंपनी पहले ही दौर में बाहर हो गई थी और इसके बाद भी तीन दौर में बाहर होती रही. लेकिन हर बार विश्व बैंक के लोग सरकार पर दवाब बनाकर इसे पास करवाते रहे और अतत: सलाहकार का काम इसी कंपनी को मिल गया. इसके लिए सरकार को निविदाएं तक रदद करनी पड़ीं. सूचियां दोबारा बनाई पड़ी. आपत्ति करने वाले अफसरों को अन्दमान तक भेजना पड़ा.
प्राईसवाटर हाऊस कूपर और उसकी सहायक कंपनियों ने दिल्ली जल बोर्ड में पानी की सप्लाई का काम दुनिया भर में अपनी असफलताओं के लिए बदनाम पानी कंपनियों को दिलवाने की साज़िश रच ली. इस प्रोजेक्ट को 24 गुणा 7 नाम दिया गया यानि 24 घन्ते सातों दिन पानी मिलेगा. लेकिन पानी कंपनियों के साथ हो रहे समझौते में लिखा गया कि ये कंपनियां किसी कॉलोनी के प्रवेश पाईप तक (घरों तक नहीं) 24 घटे पानी उपलब्ध कराएंगी वह भी तब जबकि दिल्ली सरकार इन्हें प्रचुर मात्र में पानी उपलब्ध कराएगी. प्रचुर मात्र का मतलब क्या होगा यह कहीं नही बताया गया था. इन कंपनियों के 84 अधिकारी दिल्ली जलबोर्ड के ऊपर बिठाए जाने थे और उन्हें वेतन दिया जाना था 11 लाख रुपए प्रतिव्यक्ति प्रति माह.
यह तो एक बानगी भर है. इस तरह दिल्ली के पानी की सप्लाई बिना कोई ज़िम्मेदारी निजी कंपनियों के हाथों में दी जा रही थी और विश्व बैंक से आया 700 करोड़ का कर्जा कुछ ही साल में वापस अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास चला जाता. इसका ब्याज़ देश की जनता पर आता. ब्याज़ न चुका पाने की स्थिति में फिर कुछ नीतियां बदली जातीं और इस तरह घुटने टेकने का एक चक्र शुरू हो जाता.
यह जानकारी मीडिया और बुद्धिजीवियों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंची तो लोग भड़क उठे. दिल्ली के लोगों ने पानी के बिल न भर कर असहयोग आन्दोलन की चेतावनी दी तो दिल्ली सरकर संभली और उसने विश्व बैंक से 700 करोड़ का ओन लेने की अप्लिकेशन वाप्स ली.
यह तो मात्र एक घटना थी जहां संयोग से जानकारी बाहर आ गई और सरकार ने अपना फैसला बदल दिया. लेकिन हर रोज़ न जाने कितने ही ऐसे समझौते हो रहे हैं. हर सरकारी दफ्तर में ओती मोटी तन्ख्वाहें लेने वाले सलाहकार बैठे हैं और इनमें से कई काम तो अभी भी प्राईसवाटर कूपर के हवाले ही हैं. क्या हो रहा होगा? क्या बिक रहा होगा? कौन जानें?

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अपने देश की ऐसी घटनाओं को देखते हैं तो ऊपर की किताबों में बताए शड़यन्त्र सच लगने लगते हैं. फिर भी, अगर इन्हें सच न माने या पूरी तरह सच न माने तो भी दुनिया में जो हो रहा है वह अनजाने ही सही, चुनिन्दा व्यापारिक कंपनियों को फायदा ही पहुंचा रहा है. दो देश लड़ते हैं तो हथियार कंपनियों को फायदा होता है. शान्ति स्थापित करने की कोशिश होती है तो भी हथियार उन्हीं कंपनियों के बिकते हैं. यहां तक कि दवा कंपनियां, मीडिया कंपनियां तक और अब तो दैनिक जीवन का साज़ो सामान बेचने की कंपनियां भी इन घरानों के ही हाथों में हैं. तो कुल मिलाकर हमारे ढ़ाचे ऐसे बन गए हैं कि सरकारे जो भी कदम उठाएं, फायदा कुछ घरानों का ही होना है. जानबूझकर ये शड़यन्त्र न रचे जा रहे हों तब भी फायदा तो कुछ गिनी चुनी कंपनियों और उनके उद्योग घरानों को ही हो रहा है.
विज्ञापन और शिक्षा के माध्यम से आम आदमी की सोचने की ताकत कुन्द की जा रही है. समाचार सुनाने, विज्ञापन के ज़रिए प्रचार करने और बेहतर रोज़गार के लिए शिक्षित बनाने के नाम पर सामान्य आदमी को इतना भ्रमित कर दिया जा रहा है कि सही और गलत को समझने या अपनी ज़रूरतों को पहचानने की समझ उसमें नहीं बची रह जा रही है.
ऐसे में वह वही करता है जो सत्ता में बैठने को उतारू लोग चाहते हैं. साम दाम दण्ड भेद के ज़रिए सत्ता में पहुंचने वाले लोगों में न तो इतनी समझ में है और न ही हिम्मत कि वे अन्तराष्ट्रीय बाज़ार की शक्तियों के सामने टिक सकें. सत्ता के इन ढांचों को बदलना होगा.

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