पश्चमी उत्तर प्रदेश के दोआब क्षेत्र के गांवों में जहां शायद दुनिया की सबसे उपजाउ सिंचित भूमि उपलब्ध् है, यहां की उर्जा अधिकतर नकारात्मक कामों में लग रही है। ऐसे में विगत दो-तीन वर्षों से यहां के कुछ लोगों को प्राकृतिक खेती से जोड़कर एक नई दिशा दिखाई गई है। मेरठ में हुए देश के बड़े किसान आन्दोलन के आधार रहे, और आई.आई.टी से जुड़े रहे रणसिंह आर्य ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जीवन विद्या के प्रस्तावों की रोशनी में उन्होंने व्यवस्था को जिस तरह समझा है और जो प्रयास किए हैं और उसके आधार पर उन्होंने 15 वें राष्ट्रीय जीवन विद्या सम्मेलन में कुछ बातें रखी। प्रस्तुत हैं उनके वक्तव्य के कुछ अंश-
दुनिया में जिस तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं उसमें आदमी अपनी भूमिका को नहीं पहचान पा रहा है। परिवर्तन ही इतनी तेज़ गति से हो रहे हैं कि आदमी के सामने हर तरफ अनिश्चितताएं हैं। व्यक्ति के झंझट, परिवार के झंझट, समाज के झंझट... इन्हें ध्यान से देखेंगे तो समझ में आता है कि ये सब व्यवस्था के झंझट हैं।
व्यवस्था क्या है! आदमी के अन्दर हर क्षण कुछ न कुछ चल रहा है। कुछ इच्छाएं हैं, विचार हैं, कुछ कामनाएं हैं, कुछ समझ है कुछ अनुभव हैं, इससे मिलकर अन्दर अन्दर कुछ घट रहा है। अन्दर जो कुछ घट रहा है उसका कुछ हिस्सा शरीर के माध्यम से बाहर आता है उसे आचरण बोलते हैं। अभिव्यक्ति बोलते हैं, जीना बोलते हैं। मनुष्य का बोलना, चलना, उठना, खाना पीना, इशारे करना... इसी को हम कह रहे हैं आचरण। इस आचरण के दो मूल आधार हैं-
- आदमी-आदमी के साथ जो घट रहा है, यानि आदमी आदमी की परस्परता में जो हो रहा है जिसको हमने व्यवहार कहा।
- आदमी और प्रकृति का एक रिश्ता है।
तो आदमी आदमी का रिश्ता यदि तृप्त हो जाए... अगर मैं किसी के साथ व्यवहार कर रहा हूं तो मैं उससे तृप्त हो जाउं, जिसके साथ मैं व्यवहार कर रहा हूं वह भी तृप्त हो इसका नाम है मनुष्य के बीच की व्यवस्था। इसका आधार है न्याय।
और आदमी और प्रकृति का जो संबन्ध् है, मनुष्य की कुछ आवश्यकताएं हैं, प्रकृति में उसकी व्यवस्था है, आदमी प्रकृति के साथ पूरक हो जाए। हम भी समृद्ध हो जाएं, बीच प्रकृति का भी सन्तुलन बना रहे, संवर्दन हो, ऐसा कुछ घट जाए...
आज हम जिस तरफ जा रहे हैं, भारतीय परंपरा में जो अच्छे लोग थे उनका मॉडल था कम से कम प्रकृति से लेना और ज्यादा से ज्यादा देना। वो मॉडल टूट गया। अभी जिस ध्रातल पर हम हैं, उसमें प्रकृति से ज्यादा से ज्यादा लेना और कम से कम देना।
आज बड़ा आदमी होने का आधार ही यही है कि प्रकृति व समाज से ज्यादा से ज्यादा लेना और कम से कम देना... इस बेईमानी पर टिका है। आज इस कारण यह सवाल खड़ा हो गया है कि ये धरती मनुष्य के रहने लायक रहेगी या नहीं।
कुछ लोग सोच रहे हैं कि पर्यावरण को ठीक कर लेंगे। इस ठीक कर लेने के पीछे भय है। जो लोग अपने शारीर का ही ख्याल नहीं रख रहे, वे भला प्रकृति
को क्या ठीक करेंगे। ये भय से नहीं होगा इसके लिए गहरा प्रयास करना होगा।
तो जो आचरण पक्ष है वो कैसे सन्तुलित हो जाए, अर्थात सज जाए, आदमी आदमी के सज जाए और प्रकृति के साथ सज जाए। वो कैसे हो? इसका नाम है व्यवस्था। आदमी आदमी के साथ सन्तुलित रहेगा तो हम विश्व परिवार तक जाएंगे। अभी तो हर जगह अपने पराए की दीवार है। अपना आता है तो अलग तरह का व्यवहार, पराया आता है तो अलग तरह का संसार। संबन्ध् हैं ये बनाने नहीं है। एक व्यक्ति का प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर अनेक कोणों से पड़ रहा है। संबन्धों को समझेंगे तो व्यवस्थाओं की तरफ ध्यान होंगे। व्यवस्थाएं बनानी नहीं हैं, व्यवस्थाएं हैं उन्हें पहचानना है।
इसमें सफल होना है तो पहले शासन की मानसिकता से मुक्ति पानी पड़ेगी, प्रकृति में शासन नहीं है व्यवस्था है। व्यवस्था को समझेंगे, उसमें भागीदार होंगे तो तो उत्सवित होंगे। पूर्णता का अहसास करेंगे। चार तरह की पूर्णताएं हैं-
- 1. विचार की पूर्णता
- 2. व्यवहार की पूर्णता
- 3. समृधि की पूर्णता
- 3. अनुभव की पूर्णता
विचारों में अधुरापन होता है तो मुझे महसूस होता है, खराब लगता है, मेरे विचार पूरे हो जाएं अर्थात समझ पूरी हो जाए। इसके बाद व्यवहार पूरा हो जाए। इसके बाद मैं अभाव से मुक्त हो जाऊ यानि मेरा अभाव पूरा हो जाए। परिवार की जितनी आवश्यकता है उससे अधिक परिवार में हो तो
समृधि का अहसास हो। तो ये हुई
समृधि की पूर्णता। और इसके साथ, विचार व्यवहार और व्यवसाय करते हुए मुझे अपने में तृप्ति का, खुशहाली का अनुभव हो तो ये होगी अनुभव की पूर्णता।
तो चार आयामों में हम पूर्ण हो सकते हैं। जीवन विद्या के माध्यम से इसकी कुछ झलक मिली है। उसी के आधार पर ये निवेदन है। ये कोई वोट का कार्यक्रम नहीं है, कोई संप्रदाय बनाने का कार्यक्रम नहीं है। सही बात होगी तो समाज का उदय होगा और सही नहीं होगी तो इसका स्वत: नष्ट हो जाना ही ठीक होगा।
लोगों के अलग अलग संकट हैं, कहीं आजीविका का सकंट है, सूखे का संकट है तो कहीं कुछ और... हमें इन संकटों के समाधान दिखते हैं।
और मित्रों! मुझे भारत में कई अनूकूलताएं दिखती हैं। दुनिया के जो बड़े संकट हैं... आज भारत चीन से घबरा रहा है, अमेरिका का झंझट है... मुझे लगता है कि भारत में अभी भी इतनी ताकत है कि ये खुद खड़ा हो सकता है और दुनिया को सम्भाल सकता है।
और उस ताकत के बारे में दो बातें संकेत करूंगा... पहला तो ये कि अभी यहां के आदमी में बन्दोबस्त बनाने की ताकत, जो बन्दोबस्त सरकार से भी नहीं बन पा रहे, वो बन्दोबस्त बनाने की ताकत भारत में अभी बची है। उसे कहीं भी छोड़ दो वह अपने हिसाब से कहीं भी इन्तज़ाम कर लेगा, व्यवस्था बना लेगा। इसके हज़ारों उदाहरण हैं। मैंने देखा है कि 40-45 लाख लोगों की भीड़ की व्यवस्था भी बिना पुलिस-प्रशासन, लोगों ने की। खाने पीने का इन्तज़ाम हुए। आधुनिकता को, पश्चिम के ज्ञान को ये बन्दोबस्त मालूम नहीं है। और ये कोई आज से नहीं, यहां सरकार से अलग हटकर गणराज्यों के भी प्रयोग किए गए।
और दूसरी ताकत है यहां के संबंधों की गहराई। हालांकि अभी आपसी संबंधों को लेकर हम बदनाम हो रहे हैं। हममें हीन भवाना भरी जा रही है। पश्चिम में संबंधों में शिष्टाचार को महत्व है लेकिन भारतीय क्षेत्र में संबन्ध् शिष्टाचार पर नहीं, मानवीयता पर आधारित रहते हैं,
यदि हम अपनी इन दो ताकतों को पहचानेंगे, और अहंकार के लिए नहीं, बल्कि व्यवस्था के संबन्ध् में पहचानेंगे, तो इन दो ताकतों को लेकर दुनिया का ढांचा बदलेगा।
और इन दो ताकतों को पहचान कर एक तो हमें अपने ज्ञान के मजबूत केन्द्र खड़े करने की ज़रूरत पड़ेगी। किसी समय भारत दुनिया में ज्ञान का केन्द्र रहा था लेकिन एक समय ऐसा आया जब पश्चिमी विचारों के प्रभाव में उसे छोटा कर दिया गया और अमेरिका व यूरोप के विश्विद्यालय ज्ञान के केन्द्र बनकर उभरे जहां आदमी को अधिकतर भ्रमित बनाया जा रहा है। भारत की ताकतों को पहचाने हुए ज्ञान के केन्द्र खड़े करने की ज़रूरत है लेकिन उस बात पर मैं यहां ज्यादा नहीं जाऊंगा।
दूसरी ज़रूरत है परिवार मूलक ग्राम स्वराज व्यवस्था। मेरा निमन्त्रण है कि पश्चिमी दोआब का एक इलाका है जहां जहां की उर्जा भी अभी नकारात्मक कामों में लगी है, खेती भी खराब हो रही है, अर्थव्ययवस्था भी टूट रही है, लेकिन वहां हज़ारों लोग समझ के साथ खड़े हुए हैं। उन सबके बल पर बिजनौर, जेपीनगर आदि इलाके के गांवों में अपनी सुविधा के अनुसार भूमिका निभाएं, भागीदारी करें।