कहीं आतंकवाद है तो कहीं भ्रष्टाचार... कहीं मिलावट है तो कहीं नशाखोरी... एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग है तो दूसरी तरफ परिवारों के तनाव.... प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हर आदमी इन समस्याओं का शिकार है। समाधन तलाशे जा रहे हैं। कहीं सरकारें बदल दी जा रहीं है तो कहीं संविधान लेकिन एक चीज़ जो नहीं बदल रही है वह है शिक्षा के दौरान मिल रही सीख। हर पढ़ा लिखा आदमी अपनी ज़िन्दगी के बीस साल शिक्षा व्यवस्था को देकर यही सीखकर जीना शुरू करता है कि जीवन का लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना है। उसके लिए चाहे जो करना पड़े। मूल्य शिक्षा के नाम पर सच और ईमान जैसे शब्द केवल रटा दिए जाते हैं।
ऐसे में विकल्प प्रस्तुत किया है जीवन विद्या के नाम से लोकप्रिय हो रहे अभियान ने जो मध्यस्थ दर्शन पर आधारित हैं और जिसका प्रस्ताव है कि दुनिया के सब मानव मूल रूप में समान हैं, गलती करना नहीं चाहते हैं. उससे जो भी गलतियां हो रही हैं वे उसकी आवयश्कता पूर्ति के क्रम में भ्रमवश हो रही हैं। लोकशिक्षा से शुरू हुआ यह अभियान देश के नामी इंजीनियरिंग कालेजों तक पहुंचा और साथ ही अब छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में स्कूली शिक्षा को मानवीय बनाने की ओर अग्रसर है। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में सक्रिय टीम का अहम हिस्सा है सोमदेव त्यागी। जीवन विद्या के 15वें वार्षिक सम्मेलन में उनकी प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण अंश-
यह शायद आदमी का पुण्य है कि वो निरर्थकताओं की समीक्षा करने में किसी मोड़ पर सफल हो जाता है। कम से कम भारत में एक बड़ा वर्ग है जो ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर ऐसा भास आभास कर पाता है या स्पष्ट रूप से देख पाता है कि इन्द्रियों में सुख नहीं है, सुविधा में सुख नहीं है, धन या पद में सुख नहीं है। जब भी किसी को ऐसा दिखाई देता है, बहुत सारे लोग देश भर का भ्रमण करते हैं, बहुत सारी संस्थाओं, आन्दोलनों में जाते हैं और तमाम विकल्पों को देखने का प्रयास करते हैं। उसमें से कुछ पसन्द आ भी गया तो सालों की लंबाई के बाद पता चलता है कि ये वो नहीं था जो मुझको चाहिए था, वह फिर कहीं बीच में लटक कर रह गया...
हमने भी बहुत सारा प्रयास किया और हर दो तीन साल में उसकी सीमा समझ में आना शुरु होती थी और फिर उसको किसी मंच से बोलने में भी कठिनाई होती थी, क्योंकि अपने भीतर का अन्तर्मन, जो हम बोल रहे होते हैं उसके साथ संगीतमय नहीं हो पाता है, यदि हमारा अन्तरमन जो हम बोल रहे हैं उसके साथ संगीतमय नहीं है तो वो बोलना भी थकान देता है। अतृप्ति देता है।
बदलती रहती हैं दीवारें....
बहुत सारी दीवारें मानव मानव के बीच में हैं, धर्म की दीवारें हैं, रूप रंग की दीवारें हैं, आर्थिक दीवारें हैं और भी बहुत सी मान्यताओं की दीवारें हैं। ...यदि ये धर्म जाति आदि बहुत सारी दीवारें जो मानव के द्वारा बनाई गई है, यदि किसी तरह से कल्पना में इन्हें हटा कर भी देखें तो एक बहुत गहरी अपनी ही दीवार है - स्वयं को शरीर मानकर जीना। इस दीवार को हटे बिना हम एक पराएपन से मुक्त होते हैं तो दूसरे पराएपन को स्वीकार लेते हैं।
पिछले 10-20-30 छुआछूत जैसी समस्याएं अपने आप दूर हो गई, एक ही ट्रेन में बैठ कर सबको सफर करना है एक जैसा ही मोबाईल सब इस्तेमाल कर रहे हैं। तो बहुत सारी जगहों में समानता तकनीकी की वजह से, या बदले परिवेश की वजह से आई। इसमें बहुत सारी असमानताएं जो पहले बहुत बड़ा मुद्दा हुआ करती थीं वो अब उतना बड़ा मुद्दा नहीं है। विजातीय विवाह, अब शायद उतना ही होने लगा है जितना सजातीय... या अभी कुछ कम है तो आगे हो ही जाएगा। अभी के बच्चों में बहुत सारी परंपराएं जिनको हमने श्रेष्ठ माना या गलत माना, बदलते परिवेश में तेज़ी से चीज़ें बदली हैं। इसके लिए हमने कोई विशेष प्रयास, आन्दोलन के रूप में या कोई सुनियोजित तरीके से किया हो ऐसा नहीं है...
पूंजी पर आधारित प्रयास
...अभी तक के सारे प्रयास को हम यदि समीक्षित करते है तो- अभी जिस संसार में हम जीते है उसमें मूल अवधारणा है कि पूंजी व्यक्तिगत अधिकार की चीज़ है। इसके पहले विचार आये कि पूंजी समाज की चीज़ है, या सरकार की चीज़ है। मोटे रूप में देखे तो व्यवस्थागत जो विचार धाराएं चली आईं उसमें पूंजी के बारे में ज्यादा विचार हुआ। और पूंजी के बारे में जितना विचार हुआ उसमें तीन ही विकल्प हैं- या तो पूंजी सरकार की, या समाज की या व्यक्ति की। तीनों ही जगह में एक आदमी कितनी पूंजी में तृप्त होगा ऐसा तय न हो पाने के कारण, जो कि हो भी नहीं सकता है, और इसके कारण जो आश्वासन इन व्यवस्थाओं ने हमें दिए वे पूरा नहीं हुए....
शिक्षा में है समाधान
....(तथाकथित व्यवस्था को बदलने या) इन दीवारों को हटाने के लिए आज विकल्प तलाशे जा रहे हैं। विकल्प की बात करते हैं तो अब हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं जीव चेतना से मानव चेतना में गुणात्मक परिवर्तन। यदि इसके और पीछे जाएं तो मानव के अलावा पदार्थ, पेड़ पौधे, पशु पक्षी और मानव, इन सभी का (अस्तित्व में) होना प्राकृतिक घटना है। मानव के अलावा तीनों अवस्थाओं का तो रहना तो प्राकृतिक है। पर मानव का रहना संस्कार के अनुसार है। इसी अर्थ में शिक्षा या लोक शिक्षा की प्रासंगिकता है या उसके होने का प्रयोजन है। शिक्षा का प्रयोजन यही है कि मानव जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तित हो सके।
और शिक्षा किसी रहस्य की नहीं देनी है। अस्तित्व सह-अस्तित्व है। अस्तित्व में व्यवस्था है। हर इकाई स्वयं में व्यवस्था है, व्यवस्था में भागीदार है। हर इकाई परस्परता पूरकता के अर्थ में दूसरी इकाईयों के साथ सम्बंधित है। संबन्ध् शास्वत है। केवल पहचानना है। इतना ही काम हमारे हिस्से में आया है। इतना हम पहचान पाते हैं तो मैं एक कदम चलता हूं तो दूसरों के चार कदम का सहयोग मुझे मिलता ही है। दूसरों का स्नेह सहयोग प्यार भौतिक रूप में, ज्ञान रूप में सभी आयामों में मिलता ही है।
ऐसे में विकल्प प्रस्तुत किया है जीवन विद्या के नाम से लोकप्रिय हो रहे अभियान ने जो मध्यस्थ दर्शन पर आधारित हैं और जिसका प्रस्ताव है कि दुनिया के सब मानव मूल रूप में समान हैं, गलती करना नहीं चाहते हैं. उससे जो भी गलतियां हो रही हैं वे उसकी आवयश्कता पूर्ति के क्रम में भ्रमवश हो रही हैं। लोकशिक्षा से शुरू हुआ यह अभियान देश के नामी इंजीनियरिंग कालेजों तक पहुंचा और साथ ही अब छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में स्कूली शिक्षा को मानवीय बनाने की ओर अग्रसर है। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में सक्रिय टीम का अहम हिस्सा है सोमदेव त्यागी। जीवन विद्या के 15वें वार्षिक सम्मेलन में उनकी प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण अंश-
यह शायद आदमी का पुण्य है कि वो निरर्थकताओं की समीक्षा करने में किसी मोड़ पर सफल हो जाता है। कम से कम भारत में एक बड़ा वर्ग है जो ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर ऐसा भास आभास कर पाता है या स्पष्ट रूप से देख पाता है कि इन्द्रियों में सुख नहीं है, सुविधा में सुख नहीं है, धन या पद में सुख नहीं है। जब भी किसी को ऐसा दिखाई देता है, बहुत सारे लोग देश भर का भ्रमण करते हैं, बहुत सारी संस्थाओं, आन्दोलनों में जाते हैं और तमाम विकल्पों को देखने का प्रयास करते हैं। उसमें से कुछ पसन्द आ भी गया तो सालों की लंबाई के बाद पता चलता है कि ये वो नहीं था जो मुझको चाहिए था, वह फिर कहीं बीच में लटक कर रह गया...
हमने भी बहुत सारा प्रयास किया और हर दो तीन साल में उसकी सीमा समझ में आना शुरु होती थी और फिर उसको किसी मंच से बोलने में भी कठिनाई होती थी, क्योंकि अपने भीतर का अन्तर्मन, जो हम बोल रहे होते हैं उसके साथ संगीतमय नहीं हो पाता है, यदि हमारा अन्तरमन जो हम बोल रहे हैं उसके साथ संगीतमय नहीं है तो वो बोलना भी थकान देता है। अतृप्ति देता है।
...आईआईटी दिल्ली में एक सज्जन जो करीब 70-72 साल के रहे होंगे, उन्होंने मुझे एक पुस्तक दी जिसका शीर्षक था भारतीय मूल्य। उनसे विनम्र निवेदन करते हुए मैंने कहा कि यदि भारतीय मूल्य होंगे तो तालिबानी मूल्य भी होंगे। यदि तालिबानी मूल्य होंगे तो सिन्धी-पंजाबी मूल्य भी होंगे... ये बात उन तक पहुंची और उन्होंने स्वीकार किया कि मूल्य तो सार्वभौम ही होंगे। मूल्य तो सार्वभौम ही होते हैं बाकी तो जो भी है वह समय काल परिस्थिति के अनुसार महत्वपूर्ण मानी गई बातें हैं। और ये बातें कहीं न कहीं आज दीवारें हैं जो इंसान इंसान के बीच खड़ी हैं।
बदलती रहती हैं दीवारें....
बहुत सारी दीवारें मानव मानव के बीच में हैं, धर्म की दीवारें हैं, रूप रंग की दीवारें हैं, आर्थिक दीवारें हैं और भी बहुत सी मान्यताओं की दीवारें हैं। ...यदि ये धर्म जाति आदि बहुत सारी दीवारें जो मानव के द्वारा बनाई गई है, यदि किसी तरह से कल्पना में इन्हें हटा कर भी देखें तो एक बहुत गहरी अपनी ही दीवार है - स्वयं को शरीर मानकर जीना। इस दीवार को हटे बिना हम एक पराएपन से मुक्त होते हैं तो दूसरे पराएपन को स्वीकार लेते हैं।
पिछले 10-20-30 छुआछूत जैसी समस्याएं अपने आप दूर हो गई, एक ही ट्रेन में बैठ कर सबको सफर करना है एक जैसा ही मोबाईल सब इस्तेमाल कर रहे हैं। तो बहुत सारी जगहों में समानता तकनीकी की वजह से, या बदले परिवेश की वजह से आई। इसमें बहुत सारी असमानताएं जो पहले बहुत बड़ा मुद्दा हुआ करती थीं वो अब उतना बड़ा मुद्दा नहीं है। विजातीय विवाह, अब शायद उतना ही होने लगा है जितना सजातीय... या अभी कुछ कम है तो आगे हो ही जाएगा। अभी के बच्चों में बहुत सारी परंपराएं जिनको हमने श्रेष्ठ माना या गलत माना, बदलते परिवेश में तेज़ी से चीज़ें बदली हैं। इसके लिए हमने कोई विशेष प्रयास, आन्दोलन के रूप में या कोई सुनियोजित तरीके से किया हो ऐसा नहीं है...
पूंजी पर आधारित प्रयास
...अभी तक के सारे प्रयास को हम यदि समीक्षित करते है तो- अभी जिस संसार में हम जीते है उसमें मूल अवधारणा है कि पूंजी व्यक्तिगत अधिकार की चीज़ है। इसके पहले विचार आये कि पूंजी समाज की चीज़ है, या सरकार की चीज़ है। मोटे रूप में देखे तो व्यवस्थागत जो विचार धाराएं चली आईं उसमें पूंजी के बारे में ज्यादा विचार हुआ। और पूंजी के बारे में जितना विचार हुआ उसमें तीन ही विकल्प हैं- या तो पूंजी सरकार की, या समाज की या व्यक्ति की। तीनों ही जगह में एक आदमी कितनी पूंजी में तृप्त होगा ऐसा तय न हो पाने के कारण, जो कि हो भी नहीं सकता है, और इसके कारण जो आश्वासन इन व्यवस्थाओं ने हमें दिए वे पूरा नहीं हुए....
शिक्षा में है समाधान
....(तथाकथित व्यवस्था को बदलने या) इन दीवारों को हटाने के लिए आज विकल्प तलाशे जा रहे हैं। विकल्प की बात करते हैं तो अब हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं जीव चेतना से मानव चेतना में गुणात्मक परिवर्तन। यदि इसके और पीछे जाएं तो मानव के अलावा पदार्थ, पेड़ पौधे, पशु पक्षी और मानव, इन सभी का (अस्तित्व में) होना प्राकृतिक घटना है। मानव के अलावा तीनों अवस्थाओं का तो रहना तो प्राकृतिक है। पर मानव का रहना संस्कार के अनुसार है। इसी अर्थ में शिक्षा या लोक शिक्षा की प्रासंगिकता है या उसके होने का प्रयोजन है। शिक्षा का प्रयोजन यही है कि मानव जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तित हो सके।
और शिक्षा किसी रहस्य की नहीं देनी है। अस्तित्व सह-अस्तित्व है। अस्तित्व में व्यवस्था है। हर इकाई स्वयं में व्यवस्था है, व्यवस्था में भागीदार है। हर इकाई परस्परता पूरकता के अर्थ में दूसरी इकाईयों के साथ सम्बंधित है। संबन्ध् शास्वत है। केवल पहचानना है। इतना ही काम हमारे हिस्से में आया है। इतना हम पहचान पाते हैं तो मैं एक कदम चलता हूं तो दूसरों के चार कदम का सहयोग मुझे मिलता ही है। दूसरों का स्नेह सहयोग प्यार भौतिक रूप में, ज्ञान रूप में सभी आयामों में मिलता ही है।
मानव लक्ष्य एक है
मानव की मूल चाहत एक है। इस रूप में सभी अक्षय बल शक्ति संपन्न हैं। सभी की चाहत रूप में समानता है। ये जन, ये यश और धन सामाजिक संपत्ति है। ये हर मानव को स्वीकार हो जाए। और ये भी किमेरी सारी यात्रा मेरी पूर्णता की यात्रा है। उसमें तमाम परंपरा का और वर्तमान का जो भी सहयोग मिला है उसके लिए मेरा कण कण ट्टणी होता है ये कृतज्ञता का भाव कोई सुन्दर अनुपम वस्तु है। ऐसा भाव हर मानव में स्थापित हो जाए। परंपरा में इस भाव को आस्था के रूप में देने की सफल कोशिश हुई लेकिन कुछ वास्तविकताओं की बात अधूरी पड़ गई तो उसमें कुछ कम पड़े। एक बार फिर आशा की किरण जगी है कि वास्तविकताओं को समझा जा सकता है। पांच साल पहले या कुछ और पहले तक ये सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित था। लेकिन छत्तीसगढ़ शिक्षा विभाग के साथ हुए प्रयोगों ने हमें भरोसा दिलाया कि शासन के ढांचे, जिन्हें हम अभी व्यवस्था कहते हैं, बदले जा सकते हैं। शासन व्यवस्था में बदल सकता है। यही स्थिति महाराष्ट्र में भी बनी है।
अभी तक जितने प्रयास हुए हैं उसमें विकल्प के रूप में मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद, प्रस्तुति के रूप में जीवन विद्या, शिक्षा के रूप में चेतना विकास मूल्य शिक्षा हमारे सामने हैं। बहुत सारे मित्रा अलग अलग दिशाओं में, देश के अलग अलग हिस्सों में, सबकी अपनी प्रवृति के अनुसार लगे हैं। लेकिन ये लगभग सबकी स्वीकृति में है कि जितना हमने निओजन किया है परिणाम उससे कहीं ज्यादा है। छत्तीसगढ़ में इंजीनियरिंग शिक्षा में बहुत काम हुआ। पिछले 3 सालों में छत्तीसगढ़ शिक्षा विभाग के साथ मिलकर बड़ा काम हुआ। लगभग बीस हज़ार शिक्षक शिविरों से गुजर चुके हैं... और जितना काम छत्तीसगढ़ में पिछले तीन साल में हुआ उतना पिछले चार महीने में महाराष्ट्र में हो चुका है। ऐसा लगता है कि आगे की यात्रा और सुखद होगी।
अभी तक जितने प्रयास हुए हैं उसमें विकल्प के रूप में मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद, प्रस्तुति के रूप में जीवन विद्या, शिक्षा के रूप में चेतना विकास मूल्य शिक्षा हमारे सामने हैं। बहुत सारे मित्रा अलग अलग दिशाओं में, देश के अलग अलग हिस्सों में, सबकी अपनी प्रवृति के अनुसार लगे हैं। लेकिन ये लगभग सबकी स्वीकृति में है कि जितना हमने निओजन किया है परिणाम उससे कहीं ज्यादा है। छत्तीसगढ़ में इंजीनियरिंग शिक्षा में बहुत काम हुआ। पिछले 3 सालों में छत्तीसगढ़ शिक्षा विभाग के साथ मिलकर बड़ा काम हुआ। लगभग बीस हज़ार शिक्षक शिविरों से गुजर चुके हैं... और जितना काम छत्तीसगढ़ में पिछले तीन साल में हुआ उतना पिछले चार महीने में महाराष्ट्र में हो चुका है। ऐसा लगता है कि आगे की यात्रा और सुखद होगी।
- सोम देव त्यागी (15वें जीवन विद्या सम्मेलन में प्रस्तुति से साभार)
सार्थक और सराहनीय विचार व प्रस्तुती....
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