Sunday, November 21, 2010

व्यवस्था यानि क्या? व्यवस्था को बदलना या व्यवस्था को पहचानना ?

पश्चमी उत्तर प्रदेश के दोआब क्षेत्र के गांवों में जहां शायद दुनिया की सबसे उपजाउ सिंचित भूमि उपलब्ध् है, यहां की उर्जा अधिकतर नकारात्मक कामों में लग रही है। ऐसे में विगत दो-तीन वर्षों से यहां के कुछ लोगों को प्राकृतिक खेती से जोड़कर एक नई दिशा दिखाई गई है। मेरठ में हुए देश के बड़े किसान आन्दोलन के आधार रहे, और आई.आई.टी से जुड़े रहे रणसिंह आर्य ने इसमें महत्वपूर्ण भूमिका निभाई है। जीवन विद्या के प्रस्तावों की रोशनी में उन्होंने व्यवस्था को जिस तरह समझा है और जो प्रयास किए हैं और उसके आधार पर उन्होंने 15 वें राष्ट्रीय जीवन विद्या सम्मेलन में कुछ बातें रखी। प्रस्तुत हैं उनके वक्तव्य के कुछ अंश-

दुनिया में जिस तेज़ी से परिवर्तन हो रहे हैं उसमें आदमी अपनी भूमिका को नहीं पहचान पा रहा है। परिवर्तन ही इतनी तेज़ गति से हो रहे हैं कि आदमी के सामने हर तरफ अनिश्चितताएं हैं। व्यक्ति के झंझट, परिवार के झंझट, समाज के झंझट... इन्हें ध्यान से देखेंगे तो समझ में आता है कि ये सब व्यवस्था के झंझट हैं।

व्यवस्था क्या है! आदमी के अन्दर हर क्षण कुछ न कुछ चल रहा है। कुछ इच्छाएं हैं, विचार हैं, कुछ कामनाएं हैं, कुछ समझ है कुछ अनुभव हैं, इससे मिलकर अन्दर अन्दर कुछ घट रहा है। अन्दर जो कुछ घट रहा है उसका कुछ हिस्सा शरीर के माध्यम से बाहर आता है उसे आचरण बोलते हैं। अभिव्यक्ति बोलते हैं, जीना बोलते हैं। मनुष्य का बोलना, चलना, उठना, खाना पीना, इशारे करना... इसी को हम कह रहे हैं आचरण। इस आचरण के दो मूल आधार हैं-
  • आदमी-आदमी के साथ जो घट रहा है, यानि आदमी आदमी की परस्परता में जो हो रहा है जिसको हमने व्यवहार कहा। 
  • आदमी और प्रकृति का एक रिश्ता है।
तो आदमी आदमी का रिश्ता यदि तृप्त हो जाए... अगर मैं किसी के साथ व्यवहार कर रहा हूं तो मैं उससे तृप्त हो जाउं, जिसके साथ मैं व्यवहार कर रहा हूं वह भी तृप्त हो इसका नाम है मनुष्य के बीच की व्यवस्था। इसका आधार है न्याय।

और आदमी और प्रकृति का जो संबन्ध् है, मनुष्य की कुछ आवश्यकताएं हैं, प्रकृति में उसकी व्यवस्था है, आदमी प्रकृति के साथ पूरक हो जाए। हम भी समृद्ध हो जाएं, बीच प्रकृति का भी सन्तुलन बना रहे, संवर्दन हो, ऐसा कुछ घट जाए...

आज हम जिस तरफ जा रहे हैं, भारतीय परंपरा में जो अच्छे लोग थे उनका मॉडल था कम से कम प्रकृति से लेना और ज्यादा से ज्यादा देना। वो मॉडल टूट गया। अभी जिस ध्रातल पर हम हैं, उसमें प्रकृति से ज्यादा से ज्यादा लेना और कम से कम देना। आज बड़ा आदमी होने का आधार ही यही है कि प्रकृति व समाज से ज्यादा से ज्यादा लेना और कम से कम देना... इस बेईमानी पर टिका है। आज इस कारण यह सवाल खड़ा हो गया है कि ये धरती मनुष्य के रहने लायक रहेगी या नहीं।

कुछ लोग सोच रहे हैं कि पर्यावरण को ठीक कर लेंगे। इस ठीक कर लेने के पीछे भय है। जो लोग अपने शारीर का ही ख्याल नहीं रख रहे, वे भला प्रकृति को क्या ठीक करेंगे। ये भय से नहीं होगा इसके लिए गहरा प्रयास करना होगा।

तो जो आचरण पक्ष है वो कैसे सन्तुलित हो जाए, अर्थात सज जाए, आदमी आदमी के सज जाए और प्रकृति के साथ सज जाए। वो कैसे हो? इसका नाम है व्यवस्था। आदमी आदमी के साथ सन्तुलित रहेगा तो हम विश्व परिवार तक जाएंगे। अभी तो हर जगह अपने पराए की दीवार है। अपना आता है तो अलग तरह का व्यवहार, पराया आता है तो अलग तरह का संसार। संबन्ध् हैं ये बनाने नहीं है। एक व्यक्ति का प्रभाव दूसरे व्यक्ति पर अनेक कोणों से पड़ रहा है। संबन्धों को समझेंगे तो व्यवस्थाओं की तरफ ध्यान होंगे। व्यवस्थाएं बनानी नहीं हैं, व्यवस्थाएं हैं उन्हें पहचानना है।

इसमें सफल होना है तो पहले शासन की मानसिकता से मुक्ति पानी पड़ेगी, प्रकृति में शासन नहीं है व्यवस्था है। व्यवस्था को समझेंगे, उसमें भागीदार होंगे तो तो उत्सवित होंगे। पूर्णता का अहसास करेंगे। चार तरह की पूर्णताएं हैं-
  •  1. विचार की पूर्णता
  •  2. व्यवहार की पूर्णता
  •  3. समृधि की पूर्णता
  •  3. अनुभव की पूर्णता
विचारों में अधुरापन होता है तो मुझे महसूस होता है, खराब लगता है, मेरे विचार पूरे हो जाएं अर्थात समझ पूरी हो जाए। इसके बाद व्यवहार पूरा हो जाए। इसके बाद मैं अभाव से मुक्त हो जाऊ यानि मेरा अभाव पूरा हो जाए। परिवार की जितनी आवश्यकता है उससे अधिक परिवार में हो तो समृधि का अहसास हो। तो ये हुई समृधि की पूर्णता। और इसके साथ, विचार व्यवहार और व्यवसाय करते हुए मुझे अपने में तृप्ति का, खुशहाली का अनुभव हो तो ये होगी अनुभव की पूर्णता।
तो चार आयामों में हम पूर्ण हो सकते हैं। जीवन विद्या के माध्यम से इसकी कुछ झलक मिली है। उसी के आधार पर ये निवेदन है। ये कोई वोट का कार्यक्रम नहीं है, कोई संप्रदाय बनाने का कार्यक्रम नहीं है। सही बात होगी तो समाज का उदय होगा और सही नहीं होगी तो इसका स्वत: नष्ट हो जाना ही ठीक होगा।

लोगों के अलग अलग संकट हैं, कहीं आजीविका का सकंट है, सूखे का संकट है तो कहीं कुछ और... हमें इन संकटों के समाधान दिखते हैं।

और मित्रों! मुझे भारत में कई अनूकूलताएं दिखती हैं। दुनिया के जो बड़े संकट हैं... आज भारत चीन से घबरा रहा है, अमेरिका का झंझट है... मुझे लगता है कि भारत में अभी भी इतनी ताकत है कि ये खुद खड़ा हो सकता है और दुनिया को सम्भाल सकता है।

और उस ताकत के बारे में दो बातें संकेत करूंगा... पहला तो ये कि अभी यहां के आदमी में बन्दोबस्त बनाने की ताकत, जो बन्दोबस्त सरकार से भी नहीं बन पा रहे, वो बन्दोबस्त बनाने की ताकत भारत में अभी बची है। उसे कहीं भी छोड़ दो वह अपने हिसाब से कहीं भी इन्तज़ाम कर लेगा, व्यवस्था बना लेगा। इसके हज़ारों उदाहरण हैं। मैंने देखा है कि 40-45 लाख लोगों की भीड़ की व्यवस्था भी बिना पुलिस-प्रशासन, लोगों ने की। खाने पीने का इन्तज़ाम हुए। आधुनिकता को, पश्चिम के ज्ञान को ये बन्दोबस्त मालूम नहीं है। और ये कोई आज से नहीं, यहां सरकार से अलग हटकर गणराज्यों के भी प्रयोग किए गए।

और दूसरी ताकत है यहां के संबंधों की गहराई। हालांकि अभी आपसी संबंधों को लेकर हम बदनाम हो रहे हैं। हममें हीन भवाना भरी जा रही है। पश्चिम में संबंधों में शिष्टाचार को महत्व है लेकिन भारतीय क्षेत्र में संबन्ध् शिष्टाचार पर नहीं, मानवीयता पर आधारित रहते हैं,

यदि हम अपनी इन दो ताकतों को पहचानेंगे, और अहंकार के लिए नहीं, बल्कि व्यवस्था के संबन्ध् में पहचानेंगे, तो इन दो ताकतों को लेकर दुनिया का ढांचा बदलेगा।

और इन दो ताकतों को पहचान कर एक तो हमें अपने ज्ञान के मजबूत केन्द्र खड़े करने की ज़रूरत पड़ेगी। किसी समय भारत दुनिया में ज्ञान का केन्द्र रहा था लेकिन एक समय ऐसा आया जब पश्चिमी विचारों के प्रभाव में उसे छोटा कर दिया गया और अमेरिका व यूरोप के विश्विद्यालय ज्ञान के केन्द्र बनकर उभरे जहां आदमी को अधिकतर भ्रमित बनाया जा रहा है। भारत की ताकतों को पहचाने हुए ज्ञान के केन्द्र खड़े करने की ज़रूरत है लेकिन उस बात पर मैं यहां ज्यादा नहीं जाऊंगा।

दूसरी ज़रूरत है परिवार मूलक ग्राम स्वराज व्यवस्था। मेरा निमन्त्रण है कि पश्चिमी दोआब का एक इलाका है जहां जहां की उर्जा भी अभी नकारात्मक कामों में लगी है, खेती भी खराब हो रही है, अर्थव्ययवस्था भी टूट रही है, लेकिन वहां हज़ारों लोग समझ के साथ खड़े हुए हैं। उन सबके बल पर बिजनौर, जेपीनगर आदि इलाके के गांवों में अपनी सुविधा के अनुसार भूमिका निभाएं, भागीदारी करें।

Friday, November 19, 2010

यदि भारतीय मूल्य हैं तो तालिबानी मूल्य भी होंगे

कहीं आतंकवाद है तो कहीं भ्रष्टाचार... कहीं मिलावट है तो कहीं नशाखोरी... एक तरफ ग्लोबल वार्मिंग है तो दूसरी तरफ परिवारों के तनाव.... प्रत्यक्ष-अप्रत्यक्ष रूप से हर आदमी इन समस्याओं का शिकार है। समाधन तलाशे जा रहे हैं। कहीं सरकारें बदल दी जा रहीं है तो कहीं संविधान लेकिन एक चीज़ जो नहीं बदल रही है वह है शिक्षा के दौरान मिल रही सीख। हर पढ़ा लिखा आदमी अपनी ज़िन्दगी के बीस साल शिक्षा व्यवस्था को देकर यही सीखकर जीना शुरू करता है कि जीवन का लक्ष्य सिर्फ पैसा कमाना है। उसके लिए चाहे जो करना पड़े। मूल्य शिक्षा के नाम पर सच और ईमान जैसे शब्द केवल रटा दिए जाते हैं।
ऐसे में विकल्प प्रस्तुत किया है जीवन विद्या के नाम से लोकप्रिय हो रहे अभियान ने जो मध्यस्थ दर्शन पर आधारित हैं और जिसका प्रस्ताव है कि दुनिया के सब मानव मूल रूप में समान हैं, गलती करना नहीं चाहते हैं. उससे जो भी गलतियां हो रही हैं वे उसकी आवयश्कता पूर्ति के क्रम में भ्रमवश हो रही हैं। लोकशिक्षा से शुरू हुआ यह अभियान देश के नामी इंजीनियरिंग कालेजों तक पहुंचा और साथ ही अब छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में स्कूली शिक्षा को मानवीय बनाने की ओर अग्रसर है। छत्तीसगढ़ और महाराष्ट्र में सक्रिय टीम का अहम हिस्सा है सोमदेव त्यागी। जीवन विद्या के 15वें वार्षिक सम्मेलन में उनकी प्रस्तुति कुछ महत्वपूर्ण अंश-


यह शायद आदमी का पुण्य है कि वो निरर्थकताओं की समीक्षा करने में किसी मोड़ पर सफल हो जाता है। कम से कम भारत में एक बड़ा वर्ग है जो ज़िन्दगी के किसी मोड़ पर ऐसा भास आभास कर पाता है या स्पष्ट रूप से देख पाता है कि इन्द्रियों में सुख नहीं है, सुविधा में सुख नहीं है, धन या पद में सुख नहीं है। जब भी किसी को ऐसा दिखाई देता है, बहुत सारे लोग देश भर का भ्रमण करते हैं, बहुत सारी संस्थाओं, आन्दोलनों में जाते हैं और तमाम विकल्पों को देखने का प्रयास करते हैं। उसमें से कुछ पसन्द आ भी गया तो सालों की लंबाई के बाद पता चलता है कि ये वो नहीं था जो मुझको चाहिए था, वह फिर कहीं बीच में लटक कर रह गया...

हमने भी बहुत सारा प्रयास किया और हर दो तीन साल में उसकी सीमा समझ में आना शुरु होती थी और फिर उसको किसी मंच से बोलने में भी कठिनाई होती थी, क्योंकि अपने भीतर का अन्तर्मन, जो हम बोल रहे होते हैं उसके साथ संगीतमय नहीं हो पाता है, यदि हमारा अन्तरमन जो हम बोल रहे हैं उसके साथ संगीतमय नहीं है तो वो बोलना भी थकान देता है। अतृप्ति देता है।

...आईआईटी दिल्ली में एक सज्जन जो करीब 70-72 साल के रहे होंगे, उन्होंने मुझे एक पुस्तक दी जिसका शीर्षक था भारतीय मूल्य। उनसे विनम्र निवेदन करते हुए मैंने कहा कि यदि भारतीय मूल्य होंगे तो तालिबानी मूल्य भी होंगे। यदि तालिबानी मूल्य होंगे तो सिन्धी-पंजाबी मूल्य भी होंगे... ये बात उन तक पहुंची और उन्होंने स्वीकार किया कि मूल्य तो सार्वभौम ही होंगे। मूल्य तो सार्वभौम ही होते हैं बाकी तो जो भी है वह समय काल परिस्थिति के अनुसार महत्वपूर्ण मानी गई बातें हैं। और ये बातें कहीं न कहीं आज दीवारें हैं जो इंसान इंसान के बीच खड़ी हैं।

बदलती रहती हैं दीवारें....
बहुत सारी दीवारें मानव मानव के बीच में हैं, धर्म की दीवारें हैं, रूप रंग की दीवारें हैं, आर्थिक दीवारें हैं और भी बहुत सी मान्यताओं की दीवारें हैं। ...यदि ये धर्म जाति आदि बहुत सारी दीवारें जो मानव के द्वारा बनाई गई है, यदि किसी तरह से कल्पना में इन्हें हटा कर भी देखें तो एक बहुत गहरी अपनी ही दीवार है - स्वयं को शरीर मानकर जीना। इस दीवार को हटे बिना हम एक पराएपन से मुक्त होते हैं तो दूसरे पराएपन को स्वीकार लेते हैं।
पिछले 10-20-30 छुआछूत जैसी समस्याएं अपने आप दूर हो गई, एक ही ट्रेन में बैठ कर सबको सफर करना है एक जैसा ही मोबाईल सब इस्तेमाल कर रहे हैं। तो बहुत सारी जगहों में समानता तकनीकी की वजह से, या बदले परिवेश की वजह से आई। इसमें बहुत सारी असमानताएं जो पहले बहुत बड़ा मुद्दा हुआ करती थीं वो अब उतना बड़ा मुद्दा नहीं है। विजातीय विवाह, अब शायद उतना ही होने लगा है जितना सजातीय... या अभी कुछ कम है तो आगे हो ही जाएगा। अभी के बच्चों में बहुत सारी परंपराएं जिनको हमने श्रेष्ठ माना या गलत माना, बदलते परिवेश में तेज़ी से चीज़ें बदली हैं। इसके लिए हमने कोई विशेष प्रयास, आन्दोलन के रूप में या कोई सुनियोजित तरीके से किया हो ऐसा नहीं है...

पूंजी पर आधारित प्रयास
...अभी तक के सारे प्रयास को हम यदि समीक्षित करते है तो- अभी जिस संसार में हम जीते है उसमें मूल अवधारणा है कि पूंजी व्यक्तिगत अधिकार की चीज़ है। इसके पहले विचार आये कि पूंजी समाज की चीज़ है, या सरकार की चीज़ है। मोटे रूप में देखे तो व्यवस्थागत जो विचार धाराएं चली आईं उसमें पूंजी के बारे में ज्यादा विचार हुआ। और पूंजी के बारे में जितना विचार हुआ उसमें तीन ही विकल्प हैं- या तो पूंजी सरकार की, या समाज की या व्यक्ति की। तीनों ही जगह में एक आदमी कितनी पूंजी में तृप्त होगा ऐसा तय न हो पाने के कारण, जो कि हो भी नहीं सकता है, और इसके कारण जो आश्वासन इन व्यवस्थाओं ने हमें दिए वे पूरा नहीं हुए....

शिक्षा में है समाधान
....(तथाकथित व्यवस्था को बदलने या) इन दीवारों को हटाने के लिए आज विकल्प तलाशे जा रहे हैं। विकल्प की बात करते हैं तो अब हम स्पष्ट रूप से कह सकते हैं जीव चेतना से मानव चेतना में गुणात्मक परिवर्तन। यदि इसके और पीछे जाएं तो मानव के अलावा पदार्थ, पेड़ पौधे, पशु पक्षी और मानव, इन सभी का (अस्तित्व में) होना प्राकृतिक घटना है। मानव के अलावा तीनों अवस्थाओं का तो रहना तो प्राकृतिक है। पर मानव का रहना संस्कार के अनुसार है। इसी अर्थ में शिक्षा या लोक शिक्षा की प्रासंगिकता है या उसके होने का प्रयोजन है। शिक्षा का प्रयोजन यही है कि मानव जीव चेतना से मानव चेतना में परिवर्तित हो सके।
और शिक्षा किसी रहस्य की नहीं देनी है। अस्तित्व सह-अस्तित्व है। अस्तित्व में व्यवस्था है। हर इकाई स्वयं में व्यवस्था है, व्यवस्था में भागीदार है। हर इकाई परस्परता पूरकता के अर्थ में दूसरी इकाईयों के साथ सम्बंधित है। संबन्ध् शास्वत है। केवल पहचानना है। इतना ही काम हमारे हिस्से में आया है। इतना हम पहचान पाते हैं तो मैं एक कदम चलता हूं तो दूसरों के चार कदम का सहयोग मुझे मिलता ही है। दूसरों का स्नेह सहयोग प्यार भौतिक रूप में, ज्ञान रूप में सभी आयामों में मिलता ही है। 

मानव लक्ष्य एक है
मानव की मूल चाहत एक है। इस रूप में सभी अक्षय बल शक्ति संपन्न हैं। सभी की चाहत रूप में समानता है। ये जन, ये यश और धन सामाजिक संपत्ति है। ये हर मानव को स्वीकार हो जाए। और ये भी किमेरी सारी यात्रा मेरी पूर्णता की यात्रा है। उसमें तमाम परंपरा का और वर्तमान का जो भी सहयोग मिला है उसके लिए मेरा कण कण ट्टणी होता है ये कृतज्ञता का भाव कोई सुन्दर अनुपम वस्तु है। ऐसा भाव हर मानव में स्थापित हो जाए। परंपरा में इस भाव को आस्था के रूप में देने की सफल कोशिश हुई लेकिन कुछ वास्तविकताओं की बात अधूरी पड़ गई तो उसमें कुछ कम पड़े। एक बार फिर आशा की किरण जगी है कि वास्तविकताओं को समझा जा सकता है। पांच साल पहले या कुछ और पहले तक ये सिर्फ कुछ लोगों तक सीमित था। लेकिन छत्तीसगढ़ शिक्षा विभाग के साथ हुए प्रयोगों ने हमें भरोसा दिलाया कि शासन के ढांचे, जिन्हें हम अभी व्यवस्था कहते हैं, बदले जा सकते हैं। शासन व्यवस्था में बदल सकता है। यही स्थिति महाराष्ट्र में भी बनी है।
अभी तक जितने प्रयास हुए हैं उसमें विकल्प के रूप में मध्यस्थ दर्शन सह-अस्तित्ववाद, प्रस्तुति के रूप में जीवन विद्या, शिक्षा के रूप में चेतना विकास मूल्य शिक्षा हमारे सामने हैं। बहुत सारे मित्रा अलग अलग दिशाओं में, देश के अलग अलग हिस्सों में, सबकी अपनी प्रवृति के अनुसार लगे हैं। लेकिन ये लगभग सबकी स्वीकृति में है कि जितना हमने निओजन किया है परिणाम उससे कहीं ज्यादा है। छत्तीसगढ़ में इंजीनियरिंग शिक्षा में बहुत काम हुआ। पिछले 3 सालों में छत्तीसगढ़ शिक्षा विभाग के साथ मिलकर बड़ा काम हुआ। लगभग बीस हज़ार शिक्षक शिविरों से गुजर चुके हैं... और जितना काम छत्तीसगढ़ में पिछले तीन साल में हुआ उतना पिछले चार महीने में महाराष्ट्र में हो चुका है। ऐसा लगता है कि आगे की यात्रा और सुखद होगी।   
- सोम देव त्यागी (15वें जीवन विद्या सम्मेलन में प्रस्तुति से साभार)

Tuesday, November 2, 2010

संकट के सूत्र : षडयंत्रों से समाधान तक

इसमें कोई ‘शक नहीं है कि आज दुनिया गहरे संकट से गुजर रही है. परिवार, समाज, राष्ट्र आपस में उलझे हैं. हर कोई एक दूसरे को दबाने की अन्तहीन होड़ में है. और इसका खामियाज़ा मानवता को उठाना पड़ रहा है. हर आदमी सहमा है, हर परिवार डरा हुआ है, समाज और राष्ट्र अभूतपूर्व स्तर पर अशांत हैं.

कुछ लोगों का दावा है कि दुनिया भर में हो रही अमानवीय गतिविधियां विश्व के चुनिन्दा उद्योग घरानों की सोची समझी साजिश हैं. इन साजिशों का खुलासा निकोला एम. निकोलोव नामक लेखक ने "द वर्ल्ड कांसप्रेसीज़" नामक अपनी पुस्तक में किया है. भारत में आज़ादी बचाओ आन्दोलन ने इस पुस्तक का हिन्दी अनुवाद "विश्व जागतिक शड़यन्त्र" के नाम से प्रकाशित किया है.

इस पुस्तक में विभिन्न तथ्यों और घटनाक्रमों को सबूत के रूप में प्रस्तुत करते हुए बताया गया गया है कि किस तरह सारी दुनिया दो पूंजीपति घरानों के इशारों पर नाच रही है. पिछले दो सौ साल में जितने युद्ध हुए, क्रान्तियां हुईं, यहां तक कि अकाल और गरीबी का खेल भी इन्हीं घरानों द्वारा मुनाफा कमाने के चक्कर में खेला जाता है. ये दो बड़े पूंजीपति घराने, जिनके मुखिया रॉथशील्ड और रॉकफेलर परिवार हैं, अपनी पूंजी और उद्योगों के अपने साम्राज्य के द्वारा सारे संसार पर शासन कर रहे हैं. दुनिया भर के राजा राष्ट्रपति और शासक इनके नौकरों की तरह अपना काम करते हैं.

पिछले दो सौ साल में इन दो घरानों ने मुनाफा कमाने के लिए दुनिया में जो खेल रचे है उनमें एक तरफ तो युद्ध, क्रान्तियां, तख्तापलट और हत्याएं, बीमारियां हैं तो दूसरी तरफ धर्म-शान्ति स्थापना, शिक्षा, वैज्ञानिक ‘शोधों आदि में भी ये पैसा लगाते हैं और इन सबसे मुनाफा कमाते हैं

पुस्तक खुलासा करती है कि किस तरह ढाई सौ साल पहले में जर्मनी में पैदा हुए राथशील्ड ने बैंकिंग कारोबार को अपने शड़यन्त्र के सहारे आगे बढ़ाया, दुनिया के देशों में पहले से काम कर रहे बैंकों को या तो खरीदा या उनका दीवाला निकाल दिया, और फिर दुनिया के तमाम देशों की सरकारों को भारी भरकम कर्ज के बोझ से लाद दिया. आज इस परिवार से जुड़े बैंक अपने कर्जदार देशों के नेताओं को अपनी उंगलियों पर नचा रहे हैं.

रॉथशील्ड कंपनी ने आज तक किसी सामान का व्यापार नहीं किया. वह केवल मुद्रा का कारोबार करती है और कोई ऐसा देश नहीं जो विदेशी कर्ज के नाम पर इन बैंकों के कर्ज से न दबा हो. खुद अमेरिका पर इस समय तीन ट्रिलियन डॉलर का ऋण है जो उसके बजट का सातवां हिस्सा है. इतनी बड़ी राशि ने अमेरिका को हमेशा हमेशा के लिए राथफील्ड घराने द्वारा संचालित बैंकों का गुलाम बना दिया है. आज अमेरिका की जो भी नीतियां, युद्ध हम देखते हैं वे इसी के चलते हैं. लिंकन, गारफील्ड, मैकिन्ले, और हाडिंग की हत्याएं इसीलिए कराई गईं क्योंकि इन्होंने अमेरिकी जनता के हितों की बात की थी जिससे रॉथफील्ड कंपनी को नुकसान पहुचने वाला था.

हाल ही में दुनिया ने ऐसी आर्थिक मन्दी देखी है जिसमें कई देश चरमरा गए. बताते हैं कि इसके पहले 1930 में ऐसी बेरोज़गारी आई थी. तब हुआ यही था कि रॉथशील्ड के बैंकों ने अपना सब धन रोक लिया था. इससे व्यापार रुक गया. लोगों के पास पैसा नहीं था इसीलिए कारखाने बन्द हो गए. बैंकों ने हज़ारों कारखाने, और खेत अपने कब्ज़े में ले लिए. लोग अपनी संपत्ति और बचत से हाथ धो बैठे. दिलचस्प बात ये है कि इसी समय ये बैंक दूसरे विश्व युद्ध के लिए लगातार धन उपलब्ध करा रहे थे.

लेखक का दावा है कि आजकल रॉथशील्ड परिवार के 300 बैंकों का जाल सारी दुनिया में अलग अलग नाम से फैला है. ये बैंक ही विश्व की नीतियों और युद्धों में निर्णायक भूमिका निभा रहे हैं. संयुक्त राष्ट्र, विश्व बैंक जैसी संस्थाएं इनके मोहरे हैं. और इस शड़यन्त्र को समझे बिना दुनिया की समस्याओं के हल के लिए किए जा रहे प्रयास सफल नहीं हो सकेंगे.
इसी कड़ी में एक और महत्वपूर्ण खुलासा "इकॉनॉमिक हिट मैन" नाम की किताब में किया गया है. इस किताब के लेखक जॉन पार्किंस का दावा है कि दुनिया की लगभग तमाम सरकारें मात्र कुछ अन्तराष्ट्रीय कंपनियों के हिसाब से काम कर रही हैं.  अन्तराष्ट्रीय स्तर पर होने वाली लगभग हर छोटी बड़ी घटना के पीछे एक सोची साज़िश होती है. ये साज़िश बहुराष्ट्रीय कंपनियों के द्वारा रची जाती हैं. कभी इन्हें अमेरिकी सरकार अन्जाम देती है तो कभी वर्ल्ड बैंक और संयुक्त राष्ट्र जैसी संस्थाएं.  जॉन पार्किंस का दावा है कि वह खुद जाने अनजाने इन शड़यन्त्रकारियों में शामिल कर लिया गया. कई बार उसकी आत्मा ने उसे कचोटा लेकिन भारी वेतन और सुविधाओं के दवाब में वह दबता रहा. परन्तु अमेरिका में हुए आतंकवादी हमलों और उनसे हुई मौतों ने उसकी आत्मा हिला दी. अत: उसने अपने ही द्वारा कई देशों में रचे गए शड़यन्त्रों के साक्ष्य देते हुए इस पूरी साजिश का पर्दाफाश किया है.

यह किताब बताती है है कि अमेरिका में सी.आई.ए. की ही तरह एक और एजेंसी है जिसका नाम है इकॉनॉमिक हिट मैन (ई.एच.एम). इस एजेंसी का काम है दुनिया भर के संसाधनों और बाज़ार को अमेरिकी कंपनियों के कब्ज़े में लाना. इस एजेंसी से जुड़े लोगों को भारी भरकम वेतन देकर आर्धिक सलाहकारों और विशेशज्ञों के रूप में अन्य देशों की सरकारों के साथ काम करने को भेजा जाता है. ये लोग फर्जी आंकड़ों के आधार पर सरकार से ऐसी नीतियां बनवाते हैं जिससे कि वे विदेशी बैंकों से कर्ज लेने और पैसे से अमेरिकी कंपनियों से काम कराने पर  मजबूर हों. आम तौर पर ये तथाकथित विशेशज्ञ साज़िशन रचे गए आंकड़ों,  अमेरिकी दबाव और रिश्वत, सेक्स आदि के दम पर नेताओं और अफसरों से अपनी बात मनवा लेते हैं. लेकिन जहां ये नाकाम होते हैं वहां फिर यह काम सी.आई.ए को दिया जाता है. सी.आई.ए. उस देश में अशान्ति और हिंसा की साज़िर रचता है और ज़रूरत पड़ने पर इमानदार नेताओं की हत्या भी करवा देता है. लेकिन कभी कभी जब किसी देश में सी.आई.ए. भी नाकाम हो जाता है तो अमेरिकी सेना को उस देश की कमान युद्ध के रूप में सौंपी जाती है. जॉन पार्किंस के मुताबिक ईराक और वियतनाम दो ऐसे उदाहरण हैं जहां सी.आई.ए. भी नाकाम रही है. अत: इन देशों को युद्ध का सामना करना पड़ा.
ई.एच.एम. एजेंट के रूप में काम करते हुए जॉन पार्किंस ने कई जगह सफलता हासिल की. इसमें सबसे पहले उसे इण्डोनेशिया भेजा गया. अमेरिकी कंपनियां यहां के तेल कारखानों पर कब्ज़ा करना चाहती थीं. पार्किंस को मेन नामक कंपनी का अर्थशास्त्री बना कर भेजा गया. हालांकि पार्किंस को अर्थशास्त्र का कोई ज्ञान ही नहीं था. पार्किंस से ज़बरदस्ती ऐसी रिपोर्ट्स बनवाई गईं जिनके आधार पर इण्डोनेशिया को वल्र्ड् बैंक से भारी भरकम कर्ज लेना पड़ा और अन्तत: कर्ज तले इण्डोनेशिया की सरकारों ने अपने द्वरवाज़े अमेरिकी कंपनियों की मनमानी के लिए खोल दिए.
इसी तरह उसने ईरान में शाह का तख्ता पलट करवाया, सऊदी अरब में तेल के कारोबार का सारा लेन देन अमेरिकी बैंकों को दिलवाया. इन सफलताओं के लिए उसने पैसा, औरत सहित हर तरह के झूंठ और शड़यन्त्र का सहारा लिया. पार्किंस के मुताबिक उसे पनामा में सफलता नहीं मिली तो उसे वापस बुलाकर सी. आई.ए. को कमान सौंपी गई. सी.आई.ए. ने एक महीने में ही राष्ट्रपति उमर तोरिजोस की हत्या हवाई दुर्घटना में करवा दी.
पार्किंस के मुताबिक दुनिया भर में ये खेल खेला जा रहा है. और इसकी परिणति अतत: पर्यावरण संकट, अशान्ति और युद्ध के रूप में ही देखने को मिलेगी.
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ऊपर लिखी किताबों की ही तरह और भी कई किताबें हैं, गाहे बगाहे चर्चा सुनने को मिलती रहती है कि इस दुनिया कि किसके इशारे पर चलाया जा रहा है. किस घटना के पीछे किसकी साज़िश है. ये बातें सच भी हो सकती हैं. ऐसा भी हो सकता है कि इसमें सच कम हो और अफवाह या लोगों में डर फैला कर रोमांचित होने वाले लोगों का हाथ ज्यादा हो क्योंकि जिस तरह के दावे इन बातों में किए जाते हैं उनका अन्दर तक सत्यापन करने की क्षमता किसी में नहीं है.
फिर भी भारत में भी आजकल जिस तरह विकास के नाम पर हमारी सरकारें विदेशी और प्रमुखत: अमेरिकी कंपनियों की पिट्ठू बनी हुई हैं उससे इसका भास तो मिलता है कि कहीं न कहीं कुछ पकाया जाता तो है. वर्ना ऐसा भी क्या कि चन्द लोगों के लिए सुविधाएं जुटाने के काम को विकास का नाम दिया जा और फिर इसके लिए देश के किसानों और आदिवासियों को बेघर कर दिया जा, मार डाला जाय. विकास के इस पहलू पर भी कई तर्क वितर्क किए जा सकते हैं.
लेकिन कुछ साल पहले दिल्ली में सूचना के अधिकार कानून के इस्तेमाल से दिल्ली जल बोर्ड के निजीकरण के कुछ दस्तावेज़ निकाले गए. करीब 14000 पृष्ठों के इन दस्तावेज़ों में जगह जगह यह सवाल  उठता है कि हमारी सरकरों में बैठे अफसर और नेता क्या विश्व बैंक के क्लर्क की तरह काम कर रहे हैं. घटनाक्रम इस प्रकार है कि दिल्ली जल बोर्ड की स्थिति ठीक करने के लिए विश्व बैंक ने दिल्ली सरकार को 700 करोड रुपए का कर्जा मंजूर किया लेकिन इसके पहले उसने 10 करोड़ का कर्जा यह तय करने के लिए दिया कि इस 700 करोड़ से क्या करना है. दुनिया की 35 कंपनियों ने सलाहकार के लिए आवेदन किया लेकिन विश्व बैंक ने बाकायदा दिल्ली सरकार की उंगली पकड़कर यह काम प्राईस वाटरकूपर हाउस लिमिटेड को दिलवाया. यह कंपनी पहले ही दौर में बाहर हो गई थी और इसके बाद भी तीन दौर में बाहर होती रही. लेकिन हर बार विश्व बैंक के लोग सरकार पर दवाब बनाकर इसे पास करवाते रहे और अतत: सलाहकार का काम इसी कंपनी को मिल गया. इसके लिए सरकार को निविदाएं तक रदद करनी पड़ीं. सूचियां दोबारा बनाई पड़ी. आपत्ति करने वाले अफसरों को अन्दमान तक भेजना पड़ा.
प्राईसवाटर हाऊस कूपर और उसकी सहायक कंपनियों ने दिल्ली जल बोर्ड में पानी की सप्लाई का काम दुनिया भर में अपनी असफलताओं के लिए बदनाम पानी कंपनियों को दिलवाने की साज़िश रच ली. इस प्रोजेक्ट को 24 गुणा 7 नाम दिया गया यानि 24 घन्ते सातों दिन पानी मिलेगा. लेकिन पानी कंपनियों के साथ हो रहे समझौते में लिखा गया कि ये कंपनियां किसी कॉलोनी के प्रवेश पाईप तक (घरों तक नहीं) 24 घटे पानी उपलब्ध कराएंगी वह भी तब जबकि दिल्ली सरकार इन्हें प्रचुर मात्र में पानी उपलब्ध कराएगी. प्रचुर मात्र का मतलब क्या होगा यह कहीं नही बताया गया था. इन कंपनियों के 84 अधिकारी दिल्ली जलबोर्ड के ऊपर बिठाए जाने थे और उन्हें वेतन दिया जाना था 11 लाख रुपए प्रतिव्यक्ति प्रति माह.
यह तो एक बानगी भर है. इस तरह दिल्ली के पानी की सप्लाई बिना कोई ज़िम्मेदारी निजी कंपनियों के हाथों में दी जा रही थी और विश्व बैंक से आया 700 करोड़ का कर्जा कुछ ही साल में वापस अमेरिकी बहुराष्ट्रीय कंपनियों के पास चला जाता. इसका ब्याज़ देश की जनता पर आता. ब्याज़ न चुका पाने की स्थिति में फिर कुछ नीतियां बदली जातीं और इस तरह घुटने टेकने का एक चक्र शुरू हो जाता.
यह जानकारी मीडिया और बुद्धिजीवियों के माध्यम से आम लोगों तक पहुंची तो लोग भड़क उठे. दिल्ली के लोगों ने पानी के बिल न भर कर असहयोग आन्दोलन की चेतावनी दी तो दिल्ली सरकर संभली और उसने विश्व बैंक से 700 करोड़ का ओन लेने की अप्लिकेशन वाप्स ली.
यह तो मात्र एक घटना थी जहां संयोग से जानकारी बाहर आ गई और सरकार ने अपना फैसला बदल दिया. लेकिन हर रोज़ न जाने कितने ही ऐसे समझौते हो रहे हैं. हर सरकारी दफ्तर में ओती मोटी तन्ख्वाहें लेने वाले सलाहकार बैठे हैं और इनमें से कई काम तो अभी भी प्राईसवाटर कूपर के हवाले ही हैं. क्या हो रहा होगा? क्या बिक रहा होगा? कौन जानें?

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अपने देश की ऐसी घटनाओं को देखते हैं तो ऊपर की किताबों में बताए शड़यन्त्र सच लगने लगते हैं. फिर भी, अगर इन्हें सच न माने या पूरी तरह सच न माने तो भी दुनिया में जो हो रहा है वह अनजाने ही सही, चुनिन्दा व्यापारिक कंपनियों को फायदा ही पहुंचा रहा है. दो देश लड़ते हैं तो हथियार कंपनियों को फायदा होता है. शान्ति स्थापित करने की कोशिश होती है तो भी हथियार उन्हीं कंपनियों के बिकते हैं. यहां तक कि दवा कंपनियां, मीडिया कंपनियां तक और अब तो दैनिक जीवन का साज़ो सामान बेचने की कंपनियां भी इन घरानों के ही हाथों में हैं. तो कुल मिलाकर हमारे ढ़ाचे ऐसे बन गए हैं कि सरकारे जो भी कदम उठाएं, फायदा कुछ घरानों का ही होना है. जानबूझकर ये शड़यन्त्र न रचे जा रहे हों तब भी फायदा तो कुछ गिनी चुनी कंपनियों और उनके उद्योग घरानों को ही हो रहा है.
विज्ञापन और शिक्षा के माध्यम से आम आदमी की सोचने की ताकत कुन्द की जा रही है. समाचार सुनाने, विज्ञापन के ज़रिए प्रचार करने और बेहतर रोज़गार के लिए शिक्षित बनाने के नाम पर सामान्य आदमी को इतना भ्रमित कर दिया जा रहा है कि सही और गलत को समझने या अपनी ज़रूरतों को पहचानने की समझ उसमें नहीं बची रह जा रही है.
ऐसे में वह वही करता है जो सत्ता में बैठने को उतारू लोग चाहते हैं. साम दाम दण्ड भेद के ज़रिए सत्ता में पहुंचने वाले लोगों में न तो इतनी समझ में है और न ही हिम्मत कि वे अन्तराष्ट्रीय बाज़ार की शक्तियों के सामने टिक सकें. सत्ता के इन ढांचों को बदलना होगा.